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हास्य-व्यंग्य >> एक म्यान दो तलवार

एक म्यान दो तलवार

कुलविंदर सिंह कंग, जसप्रीत कौर कंग

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :99
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7541
आईएसबीएन :81-8143-523-0

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‘हास्य-व्यंग्य’ जीवन का आधार होता है ! यह कमियों की ओर इंगित करता है और बैठकर विचार करने को विवश करता है !...

Ek Myan Do Talwar - A Hindi Book - by Kulvindar singh Kang, Jaspreet Kaur Kang

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सीधी-सीधी बात आज के ज़माने में न कोई मानता है और न ही सुनने को तैयार है, लेकिन कटाक्ष की चाशनी में भिगोकर गोली खिलाने से सामने वाले को ज्यादा कष्ट नहीं होता है ! गुदगुदाने के साथ यह सुधार के लिए प्रेरित करता है। यह दम्पति खुद तो आजतक नहीं सुधर पाया है, लेकिन दूसरों को सुधरने का एक मौका अवश्य दे रहा है।

 

–कंग दंपति

 

एक बड़ा पुराना मुहावरा है–एक म्यान में दो तलवारें नहीं समा सकतीं। हर बात का कोई न कोई अपवाद, कहीं न कहीं होता है। ऐसे ही इस मुहावरे का है। यह पुस्तक ‘एक म्यान, दो तलवार’ है। एक सजीली सोहणी कुड़ी पति के साथ-साथ व्यंग्य की धार पैनी कर रही है। पति-पत्नी कवि-कथाकार तो पहले भी हुए हैं लेकिन पहली बार है कि एक घर, एक छत के नीचे रहने वाले सब भाँति स्वस्थ, सम्पन्न-सुखी जोड़ी व्यंग्य कर रही है–एक-दूसरे पर नहीं, समाज की विसंगतियों पर। तेवर आक्रामक नहीं है, चुटकी लेने-गुदगुदाने का अन्दाज है।

श्री कुलविन्दर सिंह कंग बहुत ही शानदार लेखक हैं। उससे अधिक अच्छे सहकर्मी हैं। उससे बहुत-बहुत अच्छे इंसान हैं। इतने अच्छे कि प्रायः दुर्लभ ! यह दुर्लभ व्यक्तित्व का मालिक सबको यत्र-तत्र सर्वत्र सुलभ है। खुशी में साथ है, ग़म के साथ है, किसी एक के नहीं। सबके साथ है। वह हरदिल अज़ीज़ है, हँसमुख, जीवन्त, जहाँ हो, वहीं से चमकने वाला। वह उन हीरों में से नहीं है जो पारखी के अभाव में काँच का टुकड़ा समझ लिया जाए। वह रेडियम की तरह है जो अँधेरे में भी अपना पता खुद बता देता है।

रेडियम है तो रेडयो-एक्टिव तो है ही। वह रेडियो में एक्टिव है और रेडियो के बाहर भी। सक्रियता की संक्रामक बीमारी फैलाने में दक्ष, ऊर्जा और स्फूर्ति से लबालब यह व्यक्ति किसी दल, दलदल में सम्मिलित नहीं है। किसी ग्रुप, किसी वाद का नहीं है। किसी पर हमला, किसी की वकालत का भाव नहीं है। बस हास्य-व्यंग्य की सदानीरा धारा है जिसमें कटुता के कंकड़ बह जाते हैं, संग में झाड़-झंखाड़ भी। बस शेष हैं आनन्द हिलोरें ! जिन परिस्थितियों पर आम आदमी खीझता है, गुस्सा होता है, निराश और हताश होता है, उन्हीं स्थितियों पर कंग दम्पत्ति हँसते-हँसते हैं और हमारे-आपके जीवन को एक सुगंध प्रदान करते हैं। एक म्यान में रहने वाली तलवारों ने यह चमत्कार किया है।

इस युगल की यह पहली प्रकाशित और मुद्रित रचना है। अपने आसपास की बंजर धरती को वह ऐसे ही अपनी रचनाओं से सींचते रहेंगे। ऐसी कामना है।

 

अलका पाठक

 

 

 

आओ, जेल से भागें !

 

हाय ! आजकल जेल से भागना कितना आसान हो गया है। जेल से भागने के लिए राहें इतनी रौशन पहले कभी न थीं। फील गुड फैक्टर ! भाग-दौड़ की एक पूरी सीरिज़ !

शेर सिंह राणा आराम से तिहाड़ जेल का चीर हरण कर गया। कुछ महीने पहले पंजाब की बुड़ैल जेल से कुछ कैदी एक लम्बी सुरंग खोद कर निकल भागे थे। कुछ दिन बाद यह सुनने को मिल सकता है कि फलाँ जेल से दो-चार कैदी बाँस के सहारे दीवार फाँद कर निकल भागे। जेलों से भागने की इतनी आधुनिक तकनीक, बिलकुल दिल्ली मेट्रो रेल के प्रोजेक्ट की तरह। कहीं धरती के अंदर-अंदर खुदाई, कहीं धरातल पर पटरी बैठाई और कहीं एलिवेटड आइडियाज़। पिछले दिनों सारे देश में ‘फील गुड फैक्टर’ की बयार बह रही थी तो कैदी बेचारे अछूते कैसे रहते ? ये भी तो इसी देश के नागरिक हैं...ओफ माफ कीजिएगा...कैदी हैं। फिर क्या फर्क पड़ता है ? पड़ोसी देशों के साथ फील गुड फैक्टर के तहत हम उनके बंदों को धड़ाधड़ छोट रहे हैं तो क्या हमारे वाले बेचारे अपने प्रयासों से भी नहीं छूट सकते ?

इन कैदियों के पास रिहाई-भगाई-खुदाई के इतने बेहतरीन आइडिया और आधुनिक तकनीक है कि मेरे ख्याल से तो इन्हें दिल्ली मेट्रो रेल के प्रोजेक्ट में यूज करना चाहिए। बुड़ैल जेल वाले कैदी तो बस अड्डे से लेकर केन्द्रीय सचिवालय तक अंडर ग्राउंड खुदाई करके मेट्रो रेल कब की चला देते। बेकार में ही मेट्रो रेल वाले इतने महीनों से सड़कों के बीच फट्टे लगाकर जगह घेरे बैठे हैं और ऊपर से मशीनों का घर्र-घर्र का शोर अलग से...। बुड़ैल जेल वालों ने तो आवाज तक न आने दी थी।
पहले कभी-कभार एकाध कैदी भागता था तो लोग कहते थे कि ये कैदी फलानी फिल्म से प्रभावित होकर भागा है। अब तो फ़िल्मों वाले इनसे आइडिया लेकर शूटिंग रखते हैं। शूटिंग में तो फिर भी कई कई रीटेक हो सकते हैं लेकिन बुड़ैल-तिहाड़ जेल में तो एक कट में ही ओ.के.।

अब मुझे तो जेल से भागने वालों की बुद्धि पर भी तरस आ रहा है। अरे भई, भागे ही क्यों ? बाहर क्या रखा है ? आजकल जो सुविधाएँ फ्री में जेल के भीतर उपलब्ध हैं वो महँगाई के ज़माने में बाहर कहाँ ? अब तो पहले वाली बातें नहीं रहीं कि पुलिस जी जिसे चाहे जेल की हवा खिला दे ! जेल के पंखे-कूलरों की हवा इतनी सस्ती थोडी ना है। पंजाब, दिल्ली, गुजरात, बेऊर जेल...कहीं भी देख लो। जाम हाथ में, मोबाइल कान पे और इधर-उधर मुर्गे तीतर उड़ रहे हैं। अरे भइया, अंदर किस बात की कमी है जो बाहर की तरफ भाग रहे हो ? बाहर रखा ही क्या है ? खुद भी मारे-मारे फिरोगे और पुलिस जी को भी नाहक दौड़ना पड़ेगा। आखिर तो लौट के आओगे ही ना। जेल के अन्दर भी रातें...क्षमा करें राहें इतनी रौशन पहले कभी न थीं। अगर फिर भी कैदी भाई दो-चार दिन बाहर का एल.टी.सी. लेना ही है तो पुलिस जी को बताना चाहिए ना। रोकता कौन है ? अब तो पुलिस वाले भी जानते हैं कि अगर सस्पैंड होकर दो-चार महीने घर बैठकर क्रिकेट मैचों का मज़ा लेना है तो बड़ा आसान है। एकाध कैदी बाहर सरक जाने दिया और बन गई बात। नौकरी तो बाद में बहाल हो ही जाएगी, एरियर मिलेगी सो अलग।

अब तो वैसे भी चुनावों का सीजन है, सो ज्यादा से ज्यादा भागने-भगाने की खबरें मिलेंगी। पार्टियाँ फीलगुड और रोडशो के तहत धड़ाधड़ चुनावी टिकट बाँट रही हैं। टिकटों के असली हकदार तो ‘अन्दर’ हैं ! इस सीजन में ये लोग किसी तरह बाहर आने का जुगाड़ करेंगे। पार्टी कार्यालयों में जाकर टिकट के लिए ‘अड़ेंगे’। टिकट मिल गया तो चुनाव ‘लड़ेंगे’। चुनाव में साम-दाम दंड-भेद जीत कर कुर्सियों पर ‘चढ़ेंगे’।...और अगर एक बार कुर्सियों पर चढ़ बैठे तो फिर हम आप इनका क्या करेंगे ?

 

लिंक अपने-अपने

 

ये सारी दुनिया लिंकों से चलती है। बिना लिंक के कुछ भी ऊपर-नीचे नहीं हो सकता है। लिंक्स के चलते अगर आपने नीचे से कुछ ऊपर पहुँचा दिया तो सब कुछ हो जाता है। लिंक अपने आप नहीं बनते बल्कि बनाने पड़ते हैं। पुराने ज़माने के लोग सीधे-सादे थे...एक पगडंडी बनाई, उसी पर चलते रहे चाहे जंगल आया, नदी, नाला-पहाड़, वो पगडंडी नहीं छोड़ी...धीरे-धीरे ही सही लेकिन पार हो लिए। शेरशाह सूरी जी.टी रोड बनाने बैठा तो बंगाल से लेकर काबुल तक नाक की सीध में बनाता ही चला गया। बनाता क्या चला गया बल्कि बनाकर खुद भी इस दुनिया से जल्दी ही चला गया। जी.टी. रोड आज भी है। दूसरी तरफ आज देखें तो सड़कें बनती बाद में हैं टूट पहले जाती हैं...लेकिन बनाने वाले बेशर्मी से डटे हुए रहते हैं। ये शायद अपने-अपने लिंकों का कमाल है।

हम लोगों ने जब सीधी-सादी जी.टी रोड से कई ‘लिंक रोड’ निकाल लिए तो आजकल की सड़कें तो बनती ही लिंकों से हैं। ये लिंक ऊपर से नीचे तक होते हैं तभी तो रोड़ बनती है। नीचे से ऊपर तक में आप ये मत सोचियेगा कि कन्याकुमारी से कश्मीर तक लिंक बनाकर सड़क बनाई जाती है। सड़क बनाने में ही तो लिंक बनते हैं। ठेकेदारों के अफसरों से, जनता के सड़क के गड्ढों से। सारी दुनिया अपने-अपने लिंकों में उलझी हुई मस्त है...कहीं-कहीं त्रस्त है। लिंक अपने-अपने हैं।

हमें अगर टेलीफोन लाइन मैन नमस्ते कर दे और हम उसकी कुटिल मुस्कान भरी नमस्ते को देखकर भी अपनी जेब में हाथ न डालें तो शाम तक हमारा टेलीफोन डैड ! पिछली बार न्यू ईयर पर हमारे फैमिली डॉक्टर का जिस दिन ‘बैस्ट विशेज़’ का ग्रीटिंग कार्ड आया, अगले ही दिन बीवी सीढ़ियों से गिरकर फ्रैक्चर करवा बैठी। इसमें भी कोई न कोई लिंक है। ऐसा क्यों नहीं कि टाँग पहले टूटती और डॉक्टर का ग्रीटिंग बाद में आता।

बच्चों की जब वार्षिक परीक्षाएँ सिर पर हों तभी दफ्तर में ज्यादा काम निकलने लगता है। थक-हारकर जिस दिन रात को जल्दी सोने का मूड हो उसी दिन देर रात तक एस.टी.डी. से बाहर से फोन आते रहते हैं और जिस संडे की दोपहरी की भरपूर नींद के बाद मूड फ्रैश हो उस रात एस.टी.डी. तो क्या कोई लोकर कॉल तक नहीं आती।
आजकल बिना लिंक के कुछ नहीं होता...अखबार वालों से लिंक हों तो कहानियाँ-व्यंग्य छपते हैं। खेल संघ वालों से लिंक हों तो ओलंपिक खेल...और अगर किसी क्रिकेट बुकी से लिंक हो तो जेल...।

राजनीति में तो लिंक सबसे ज्यादा काम आते हैं। पाँच साल तक तो नेता सुरा-सुंदरी और नोट से लिंक रखते हैं। केवल चुनावों में ही वोट से लिंक रहता है। वैसे देखा जाए तो वोट से लिंक बनाने में भी नोट का लिंक ही काम आता है। सभी पार्टियाँ कहती हैं हमारी पार्टी आम पब्लिक से ‘ग्रासरूट’ पर सम्पर्क करती है। बड़े नेताओं को तो वैसे भी पाँच साल में एक बार ही झुग्गी-झोंपड़ियों में जाना होता है। वहाँ पानी भरा हो तो चेले चम्मचें ईंटें-वींटें रखकर ‘पार’ निकलने का रास्ता बना ही देते हैं। नेता वोट रूपी आम चूस कर आम आदमी को गुठलियाँ पकड़ा जाते हैं। पब्लिक इन आश्वासन रूपी गुठलियों को निहार-निहार कर रोती रहती है और नेता पाँच साल तक कुर्सियों में धँसे ऐसी पब्लिक को निहार निहार हँसते रहते हैं। दोष किसका है ? ‘वोट रूपी आम’ का तो नहीं...क्योंकि ज्यादातर आम तो ‘लंगड़े’ होते हैं।

आजकल किसी को पूछकर देखिए ‘भाई साहब ! मैंने सुना है आप दलेर हैं।’ वो तुरंत हाथ जोड़ देगा, ‘नहीं जनाब मैं तो डरपोक हूँ।’ पहले जब अपनी ‘फेरारी कार’ में दलेर निकलता था तो साथ में बॉडी गार्ड़ के रूप में दिल्ली पुलिस वाला भी होता था। लिंक ऐसे बिगड़े कि अब अपनी ‘फरारी’ के बाद जब पकड़ा गया तो अब साथ में पंजाब पुलिस वाले हैं जो बॉडी गार्ड तो कम ‘बॉडी तोड़’ के रूप में ज्यादा जाने जाते हैं। देखते ही देखते बोलो तारारारा हाय मारा मारा में बदल गया। लिंक्स के चलते नकली स्टाम्प पेपर बिकते रहे, जहाँ कहीं लिंकों का लिंक टूटा..तेलगी का भाग्य रूठा।

ये दुनिया चलती रहेगी जब तक वोट और नोट का लिंक, मंतरी और संतरी का लिंक, सुरा और सुंदरी का लिंक, कुर्सी और मातमपुर्सी का लिंक बना रहेगा।

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